December 3, 2024

कोल्हान पिछले दो दशकों से भाकपा माओवादी नक्सलियों का गढ़ रहा है। लेकिन अब यहां पुलिस और सीआरपीएफ की लगातार दबिश से उनके पांव उखड़ने लगे हैं। खबर है कि माओवादी कोल्हान के जंगल से सारंडा की ओर भाग रहे हैं। इसमें नक्सलियों के कई शीर्ष नेता शामिल हैं, जो अपने-अपने दस्ते के साथ सारंडा के जंगलों में पलायन कर रहे हैं। सारंडा इलाके में नक्सलियों के सामने अपने संगठन को विस्तार देने की भी चुनौती है। इसके लिए वे गांव के युवा वर्ग और बच्चों को तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं। उनके परिवारों को डरा धमका रहे हैं। नक्सलियों के इस कदम से ग्रामीणों में दहशत है और वे गांव छोड़कर शहरी इलाकों में शरण की तलाश में है। सारंडा के कुमडीह में नक्सलियों के दस्ते के प्रवेश के बाद ये खबर निकल कर आयी है।

सारंडा की नई बस्तियों पर है माओवादियों की नजर 
गौरतलब है कि सारंडा में हाल के दिनों में जंगल को काटकर कई नई बस्तियों और टोलों को बसाया गया है। इसमें कुछ प्रमुख हैं, कुमडीह, बहदा, कुदलीबाद, कोलायबुरु, तितलीघाट, उसरुइया, हतनबुरु, पोंगा, बालिबा, तिरिलपोसी, नयागांव और बिटकिलसोय आदि। स्थानीय स्तर पर ग्रामीण इन इलाकों को झारखंड गोड़ा या झारखंड गांव के नाम से पुकारते हैं। कोल्हान छोड़कर भाग रहे नक्सली दस्तों की नजर इन्हीं इलाकों पर है। वे इन बस्तियों में अपना ठिकाना बनाने के लिए सादे लिबास में यहां रेकी कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में पहचान छिपाकर माओवादी यहां पहले से रह रहे हैं। हालांकि सारंडा में पहले से ही एक दर्जन सीआरपीएफ कैंप और पुलिस बल मौजूद हैं। फिर भी माओवादियों को लग रहा है कि वे कोल्हान से अधिक सुरक्षित सारंडा के जंगल में हैं। जानकारों की मानना है कि कोल्हान की तरह अब सारंडा में भी माओवादियों के खिलाफ बड़ा ऑपरेशन देखने के लिए मिल सकता है। 

माओवादी आतंक का दंश झेल चुका है सारंडा 
बता दें कि सारंडा का पिछेल डेढ़ दशक का इतिहास भी माओवादी कारनामों से भरा पड़ा है। सारंडा के ग्रामीणों ने माओवादियों का चौतरफा हमला झेला है। हाल के कुछ वर्षों से वे चैन की सांस ले रहे  थे। लेकिन अब फिर से यहां माओवादियों के आने की दस्तक से वे दहशत में जीनो को विवश हैं। सारंडा से नक्सलियों के सफाये के लिए सीआरपीएफ और पुलिस के जवानों ने लंबी लडाई लड़ी है। कई जवानों ने इसमें शहादत दी है। वहीं दर्जनों गांव वालों को भी अपनी जान देनी पड़ी है। ग्रामीणों पर मुखबीर होने का आरोप दोनों ओऱ से लगता है रहा है। क्या पुलिस और क्या माओवादी। सीधेसादे ग्रामीणों को दोनों की गोलियों का सामना करना पड़ा है। ग्रामीणों में इसी बात को लेकर अधिक दहशत है।

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